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उसके मोज़े भीग गए और पानी उसके पैर तक पहुँच गया, तो क्या वह उन पर मसह कर सकता हैॽ

प्रश्न: 72872

मैं पवित्रता की स्थिति में मोज़े पहनता था और बाथरूम के फर्श पर मेरे मोज़े पर पानी लग जाता था। इसलिए मैं नल से उन पर पानी डालना पसंद करता था। क्योंकि कभी-कभी मुझे बाथरूम के फर्श पर अशुद्धियाँ मिलती हैं, जैसे कि गैर-मुसलमानों का पेशाब। इसलिए मैं अपने मोज़े पर नल से पानी डालता हूँ, ताकि मैं सुनिश्चित हो सकूँ कि अशुद्धता की बूंदें उन पर से हट गई हैं। क्या मैं अभी भी, चमड़े के मोज़ों के समान, अपने उन मोज़ों (जुर्राब) पर मसह कर सकता हूँ, जबकि मैंने उन्हें पवित्रता की स्थिति में पहने थेॽ और जैसा कि आप जानते हैं कि (मोज़े पर) पानी डालने के बाद शुद्ध पानी त्वचा तक पहुँच गया। तो क्या उन जुर्राबों पर मसह करना जायज़ है या नहींॽ यदि जायज़ नहीं है,  तो मुझे अपनी पिछली नमाज़ों के बारे में क्या करना चाहिएॽ यह ध्यान में रहे कि मैंने ऐसा कई बार किया है।

उत्तर का पाठ

अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।

सर्व प्रथम :

मोज़े और पानी के बारे में मूल सिद्धांत यह है कि वे शुद्ध (पाक) हैं और उन्हें मात्र संदेह के आधार पर अशुद्ध नहीं माना जा सकता है। अतः जब तक कि आप सुनिश्चित नहीं हैं कि अशुद्धता आपके मोज़े तक पहुँच गई है, आप उनकी पड़ताल करने और उन्हें हटाने के बारे में न सोचें।

दूसरी बात :

यदि मोज़े को शुद्ध (पाक) करते समय पानी आपके पैर की त्वचा तक पहुँच जाता है, तो यह आपको नुक़सान नहीं पहुँचाएगा। क्योंकि आप अभी भी अपने मोज़े पर मसह कर सकते हैं, जब तक कि आपने उन्हें पूर्ण शुद्धता के बाद पहना है।

फ़ुक़हा (धर्म शास्त्रियों) ने इस बारे में मतभेद किया है कि क्या मोज़े में इस बात की शर्त है कि वह पानी को पैर तक पहुँचने से रोकने वाला हो या नहींॽ उनमें से कुछ का मानना ​​है कि यह शर्त नहीं है और यह हनाबिला का दृष्टिकोण है। “मातलिब ऊलिन-नुहा” (1/131) में कहा गया है : “सातवीं शर्त : यह है कि जिस चीज़ पर मसह किया जाए, प्रथा के अनुसार उसे पहनकर चलना संभव हो। ऐसा नहीं कि वह पानी के प्रभाव को रोकता हो, क्योंकि वह उस स्थान को ढाँपने वाला है जिसका धोना अनिवार्य है और उसे पहनकर चला जा सकता है।” कुछ संशोधन के साथ उद्धरण समाप्त हुआ।

जबकि दूसरे लोग इसकी शर्त लगाने की ओर गए हैं, जैसा कि शाफेइय्या का दृष्टिकोण है। नववी रहिमहुल्लाह ने “अल-मज्मू” (1/531) में कहा : “क्या मोज़े का इतना मोटा होना शर्त है जो पानी को पैर तक पहुँचने से रोकता होॽ इस संबंध में दो विचार हैं, जिन्हें इमामुल-हरमैन आदि ने उल्लेख किया है : उन दोनों में से एक विचार यह है कि : यह शर्त (आवश्यक) है। अतः यदि वह इस प्रकार बुना हुआ है कि अगर उस पर पानी डाला जाए, तो वह पैर तक पहुँच जाए, ऐसी स्थिति में उस पर मसह करना जायज़ नहीं है।

दूसरा विचार : यह शर्त (आवश्यक) नहीं है, बल्कि उस पर मसह करना जायज़ है भले ही पानी पैर तक पहुँच जाए। इस विचार को इमामुल-हरमैन और ग़ज़ाली ने पसंद किया है क्योंकि यह पैर को ढाँपता है। शाफेइय्या का मत पहला विचार है। और अल्लाह ही सबसे अधिक जानता है।” संक्षेप में समाप्त हुआ।

पहला कथन ही राजेह (सही दृष्टिकोण) है क्योंकि कोई ऐसा सही प्रमाण वर्णित नहीं है, जो मोज़े तक पानी न पहुँचने की शर्त लगाने को इंगित करता हो। अतः जब तक उसे जुर्राब का संज्ञा दिया जाता है और लोग आमतौर पर उसे पहनते हैं, तब तक उस पर मसह करना जायज़ है।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

स्रोत

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