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हज्ज या उम्रा करने के इरादे से आने वाला अगर मीक़ात पार कर जाए और एहराम में प्रवेश करना भूल जाए, फिर वापस जाकर मीक़ात से एहराम में प्रवेश करने की नीयत कर ले, तो उसपर कोई कफ़्फ़ारा नहीं है

प्रश्न: 12239

मैं हाल ही में रियाद से उम्रा के लिए गया था। मैंने घर पर ही एहराम का कपड़ा पहन लिया और यह सोचकर नीयत नहीं की, कि मैं हवाई जहाज़ में मीक़ात के बराबर से गुज़रने से पहले नीयत कर लूँगा। दुर्भाग्य से, मैंने विमान में मीक़ात के बारे में घोषणा नहीं सुनी और नीयत करने में असमर्थ रहा। क्योंकि विमान मीक़ात को पार कर चुका था। मैंने मक्का जाने का फैसला किया। मक्का पहुँचने पर, मैंने एहराम उतार दिया और नियमित कपड़े पहन लिए और ताइफ़ में क़र्न-ए-मनाज़िल चला गया। वहाँ मैंने फिर से एहराम के कपड़े पहने, उम्रा की नीयत की और मक्का वापस आ गया और उम्रा अदा किया। कृपया मुझे बताएँ कि क्या मैंने अपना उम्रा सही ढंग से किया है, या कि मुझे कफ़्फ़ारा देना होगाॽ अगर मुझे कफ़्फ़ारा देना होगा, तो मुझे क्या करना चाहिएॽ कृपया मुझे जवाब दें।

उत्तर का पाठ

अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।

जो व्यक्ति एहराम की स्थिति में प्रवेश किए बिना मीक़ात को पार कर जाए, तो उसे चाहिए कि मीक़ात पर वापस जाए और वहाँ से एहराम की स्थिति में प्रवेश करने की नीयत करे। यदि वह विमान से जद्दा में उतरा, तो वह कार पर सवार होकर नज्द के लोगों की मीक़ात पर जाएगा और वहाँ से एहराम में प्रवेश करने की नीयत करेगा। यदि वह हज्ज या उम्रा करने का इरादा रखते हुए जद्दा से एहराम में प्रवेश करने की नीयत करता है, तो उसे मीक़ात को (एहराम की स्थिति में प्रवेश किए बिना) पार करने के लिए प्रायश्चित के रूप में एक ‘दम’ (क़ुर्बानी) देना होगा।

फतवा अश-शैख इब्न जिबरीन

इसी तरह के अन्य फतवे किताब “फतावा इस्लामिय्यह” (2/202) में देखें।

ऐ प्रश्नकर्ता! आपने मीक़ात पर वापस जाकर और वहाँ से एहराम में प्रवेश करने की नीयत करके सही किया है। तथा आपका अपने एहराम के कपड़ों को उतारना दम (क़ुर्बानी) के अनिवार्य होने का कारण नहीं माना जाएगा, क्योंकि आपने एहराम में प्रवेश नहीं किया था। क्योंकि एहराम में प्रवेश करने का अर्थ है (हज्ज या उम्रा के) कर्मकांडों (क़ृत्यों) में प्रवेश करने का इरादा करना, न कि मात्र एहराम के वस्त्र पहनना। इसके आधार पर, आपने जो किया है, वह सही है और आपपर कोई कक़्फारा (प्रायश्चित) अनिवार्य नहीं है, और हर प्रकार की प्रशंसा केवल अल्लाह के लिए है।

स्रोत

शैख मुहम्मद सालेह अल-मुनज्जिद

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