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रमज़ान की क़ज़ा और आशूरा या अरफ़ा के रोज़े को एकत्रित करना

प्रश्न: 128256

प्रश्नः क्या मेरे लिए अपने ऊपर अनिवार्य रमज़ान के दिनों की क़ज़ा की नीयत से सुन्नत का रोज़ा रखना संभव है? इसी तरह क्या मैं नफ्ली रोज़े (उदाहरण स्वरूप आशूरा के दिन के रोज़े) की नीयत से ऐसा कर सकता हूँ?

उत्तर का पाठ

अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।

यह मस्अला विद्वानों के यहाँ इबादतों के बीच संयोजन या परस्पर एक दूसरे में प्रवेश करने के मुद्दे के नाम से जाना जाता है, और इसके कई रूप हैं, उन्हीं में से यह रूप भी है, और वह वाजिब और मुस्तहब को एक नीयत के साथ एकत्रित करना है। अतः जिसने मुस्तहब रोज़े की नीयत की उसके लिए वह वाजिब (अनिवार्य) रोज़े की ओर से काफी नहीं होगा। चुनाँचे जिसने आशूरा की नीयत से रोज़ा रखा उसके लिए वह रमज़ान की कज़ा की ओर से किफ़ायत नहीं करेगा, और जिसने रमज़ान की क़ज़ा की नीयत की और उसे आशूरा के दिन रखा तो उसकी क़ज़ा सही है, और आशा की जाती है कि कुछ विद्वानों के निकट उसे आशूरा का सवाब प्राप्त होगा।

रमली रहिमहुल्लाह ‘‘निहायतुल मुहताज’’ (3/208) में कहते हैं :

‘‘यदि वह शव्वाल के महीने में क़ज़ा का या नज़्र (मन्नत) वग़ैरह का रोज़ा रखे या आशूरा जैसे दिन में उसका रोज़ा रखे तो उसे उसके नफ्ल का सवाब (पुण्य) प्राप्त होगा, जैसा कि पिता रहिमहुल्लाह ने बारिज़ी, असफ़ूनी, नाशिरी और फक़ीह अली बिन सालेह अल-हज़रमी वगैरहुम का अनुसरण करते हुए फत्वा दिया है। लेकिन उसे उस पर निष्कर्षित होने वाला पूरा सवाब प्राप्त नहीं होगा, विशेषकर जिसका रमज़ान का रोज़ा छूट गया है और उसने उसके बदले शव्वाल में रोज़ा रखा है।’’ रमली की बात समाप्त हुई। इसी के समान ‘‘मुग़्नी अल-मुहताज’’ (2/184) और ‘‘हवाशी तोहफतुल मुहताज’’ (3/457) में भी है।

शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ‘‘फतावा अस्सियाम’’ (438) में फरमाते हैं :

जिस व्यक्ति ने अरफा के दिन, या आशूरा के दिन रोज़ा रखा और उसके ऊपर रमज़ान की क़ज़ा बाक़ी है तो उसका रोज़ा सही (शुद्ध) है। लेकिन यदि वह यह नीयत करे कि वह इस दिन रमज़ान की क़ज़ा का रोज़ा रख रहा है तो उसे दो अज्र प्राप्त होगा : क़ज़ा के अज्र के साथ अरफा के दिन का अज्र या आशूरा के दिन का अज्र। यह सामान्य रूप से स्वैच्छिक (नफ्ली) रोज़े पर लागू होता है, जिसका रमज़ान के साथ कोई संबंध नहीं है, परन्तु जहाँ तक शव्वाल के छः रोज़ों की बात है तो वह रमज़ान के साथ संबंधित है और वह रमज़ान की क़ज़ा के बाद ही हो सकता है। अतः यदि वह (रमज़ान की) क़ज़ा करने से पूर्व उसके (य़ानी शव्वाल के) रोज़े रखता है तो उसे उसका अज्र नहीं मिलेगा, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : ‘‘जिस व्यक्ति ने रमज़ान का रोज़ा रखा, फिर उसके पश्चात ही शव्वाल के महीने के छः रोज़े रखे तो गोया कि उसने ज़माने भर का रोज़ा रखा।’’ और यह बात सर्वज्ञात है कि जिसके ऊपर क़ज़ा बाक़ी हो तो वह रमज़ान का (मुकम्मल) रोज़ा रखने वाला नहीं समझा जायेगा, यहाँ तक कि वह कज़ा को मुकम्मल कर ले।’’ (इब्ने उसैमीन की बात समाप्त हुई)।

मनुष्य को चाहिए कि उसके ऊपर जो रोज़ा अनिवार्य है उसकी क़ज़ा करने में जल्दी करे, ऐसा करना नफ्ली रोज़ा रखने से अच्छा है, लेकिन यदि उसका समय संकीर्ण हो जाए और वह अपने ऊपर अनिवार्य सभी रोज़े क़ज़ा करने में सक्षम न हो सके और उसे यह डर हो कि उसका एक प्रतिष्ठित दिन जैसे आशूरा या अरफा के दिन का रोज़ा छूट जाएगा, तो उसे चाहिए कि क़ज़ा की नीयत से रोज़ा रखे, और आशा है कि उसे आशूरा और अरफ़ा के दिन का भी सवाब प्राप्त हो जाएगा। क्योंकि अल्लाह की अनुकंपा बहुत विस्तृत है।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

स्रोत

साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर

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