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रुक़्या की फ़ज़ीलत और उसकी दुआएँ

प्रश्न: 3476

एक आदमी के स्वयं को रुक़्या (झाड़-फूँक) करने का गुण और विशेषता क्या हैॽ उसके लिए क्या प्रमाण हैंॽ तथा जब वह खुद का रुक़्या करेगा, तो क्या कहेगाॽ

उत्तर का पाठ

अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।

1- मुसलमान के लिए खुद को रुक़्या करने में कोई आपत्ति की बात नहीं है। ऐसा करना उसके लिए अनुमेय है, बल्कि यह एक अच्छी सुन्नत है। चुनाँचे रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने खुद को रुक़्या किया है, तथा आपके कुछ साथियों (सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने (भी) अपने आपको रुक़्या किया है।

आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से वर्णित है कि : ''जब अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम बीमार पड़ते थे, तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपने ऊपर मुऔव्विज़ात का पाठ करते और फूँकते थे। फिर जब आपकी तकलीफ़ बढ़ गई, तो मैं आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ऊपर पढ़ती थी और आपके हाथ को उसकी बरकत की आशा में आप पर फेरती थी।'' इसे बुखारी (हदीस संख्या : 4728) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 2192) ने रिवायत किया है।

जहाँ तक उस हदीस का संबंध है जिसे मुस्लिम (हदीस संख्या : 220) ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से उन सत्तर हज़ार लोगों के विवरण के बारे में वर्णन किया है जो इस उम्मत के बिना हिसाब और अज़ाब के स्वर्ग में प्रवेश करेंगे, जिसके शब्द ये हैं : ''वे ऐसे लोग हैं जो न स्व्यं रुक़्या करते हैं और न दूसरों को अपने लिए रुक़्या करने को कहते हैं।''

हदीस का शब्द ''वे रुक़्या नहीं करते हैं।'' यह वर्णनकर्ता की ओर से होने वाली एक भ्रांति है, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह शब्द नहीं कहा है। इसीलिए बुखारी ने इस हदीस को (हदीस संख्या 5420) के अंतर्गत रिवायत किया है और उसमें उन्होंने इस वाक्यांश का उल्लेख नहीं किया है।

शैखुल-इस्लाम इब्ने तैमिय्यह रहिमहुल्लाह ने फरमाया :

इन लोगों की यह प्रशंसा करना कि वे रुक़्या नहीं करवाते अर्थात वे किसी को भी अपने लिए रुक़्या करने को नहीं कहते, और रुक़्या एक प्रकार की दुआ है। चुनाँचे वे किसी से रुक़्या करने के लिए अनुरोध नहीं करते हैं। तथा इसमें ''वे रुक़्या नहीं करते'' के वाक्यांश का भी उल्लेख किया गया है, लेकिन वह गलत है। क्योंकि उनका दूसरों को तथा खुद को रुक़्या करना एक अच्छा काम है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) स्वयं को और दूसरों को रुक़्या किया करते थे, लेकिन किसी दूसरे को अपने लिए रुक़्या करने को नहीं कहते थे; क्योंकि आपका खुद को और दूसरों को रुक़्या करना, अपने लिए और दूसरों के लिए दुआ करने के अध्याय से है। और यह एक ऐसी चीज़ है, जिसका आदेश दिया गया है; क्योंकि सभी पैगंबरों ने अल्लाह तआला से माँगा और उससे दुआ किया है, जैसा कि अल्लाह तआला ने आदम, इब्राहीम, मूसा और अन्य नबियों की कहानियों में उल्लेख किया है।''

मजमूउल-फतावा (1/182) से समाप्त हुआ।

इब्नुल-क़ैयिम रहिमहुल्लाह ने कहा :

यह वाक्यांश हदीस में प्रविष्ट किया गया है और यह कुछ वर्णनकर्ताओं की ओर से गलती हुई है।'' (हादिल-अरवाह 1/89).

रुक़्या एक महान उपचार है जिसका एक विश्वासी को नियमित रूप से उपयोग करना चाहिए।

2- जहाँ तक उन धर्मसंगत दुआओं का संबंध हैं जिन्हें एक मुसलमान को खुद के लिए या किसी और के लिए रुक़्या करते समयं पढ़ना चाहिए, तो वे बहुत-सी दुआएं हैं, जिनमें से सबसे बड़ी सूरतुल-फातिहा और मुऔव्विज़ात हैं :

  • अबू सईद खुदरी रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्होंने कहा : नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथियों का एक समूह एक यात्रा पर निकला। यात्रा के दौरान वे अरब कबीलों में से एक क़बीले के पास उतरे। उन्होंने उनसे अतिथि सत्कार के लिए कहा लेकिन उन्होंने उनकी मेज़बानी करने से इनकार कर दिया। संयोगवश, उस क़बीले के सरदार को साँप ने डँस लिया। उन्होंने हर प्रकार की कोशिश की लेकिन उसे कुछ भी लाभ नहीं हुआ। फिर उनमें से कुछ ने कहा, तुम उन लोगों के पास क्यों नहीं जाते जो यहाँ आकर उतरे हैं। शायद उनमें से किसी के पास कोई चीज़ हो। इसलिए वे उनके पास गए और कहा, ऐ लोगो, हमारे सरदार को साँप ने डँस लिया है और हमने उसके लिए हर तरह की कोशिश कर डाली लेकिन उसे कुछ भी लाभ नहीं हुआ। क्या तुम में से किसी के पास कोई चीज़ हैॽ तो उनमें से एक (सहाबी) ने कहा : हाँ, अल्लाह की क़सम मैं रुक़्या कर सकता हूँ। लेकिन अल्लाह की क़सम, हमने तुमसे अतिथि सत्कार के लिए कहा था लेकिन तुमने हमारी मेज़बानी करने से इनकार कर दिया। इसलिए मैं तुम्हारे लिए तब तक रुक़्या नहीं करूँगा जब तक तुम हमें बदले में कुछ नहीं दोगे। चुनाँचे वे उनके साथ बकरियों के एक रेवड़ पर सहमत हो गए। फिर वह सहाबी वहाँ गए और उस पर “अल-हम्दुलिल्लाहि रब्बिल आलमीन” (सूरतुल-फ़ातिहा) पढ़कर फूँकना शुरू कर दिया। फिर वह ऐसे चंगा हो गया गोया कि रस्सी खोल दी गई हो। चुनाँचे वह ऐसे चलना शुरू कर दिया कि उसे कोई बीमारी नहीं थी। फिर उन्होंन सहाबा को वह दिया जिसपर वे सहमत हुए थे। उनमें से कुछ (साहब) ने कहा, हमें इसे साझा कर लेते हैं। तो जिसने रुक़्या किया था, उसने कहा कि ऐसा न करो यहाँ तक हम पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास उपस्थित होकर आपसे उसका चर्चा न करें जो कुछ हुआ है। फिर हम देखें कि आप हमें क्या करने के लिए कहते हैं। इसलिए वे अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास आए और आपको बताया कि क्या हुआ था। आपने कहा : "तुम्हें कैसे पता चला कि यह एक रुक़्या (झाड़-फूँक) है?" फिर आपने कहा :  "तुमने ठीक किया। उन्हें साझा कर लो, और अपने साथ मेरा भी एक हिस्सा लगाओ।” यह कहकर रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हँस पड़े।” इसे बुखारी (हदीस संख्या : 2276) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 2201) ने रिवायत किया है।
  • आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से वर्णित है कि : ''जब अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम बीमार पड़ते थे, तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपने ऊपर मुऔव्विज़ात का पाठ करते और फूँकते थे। फिर जब आपकी तकलीफ़ बढ़ गई, तो मैं आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ऊपर पढ़ती थी और आपके हाथ को उसकी बरकत की आशा में आप पर फेरती थी।'' इसे बुखारी (हदीस संख्या : 4175) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 2192) ने रिवायत किया है।

सुन्नत में वर्णित दुआओं में से कुछ निम्नलिखित हैं :

मुस्लिम (हदीस संख्या : 2202) ने उसमान बिन अबुल-आस से रिवायत किया है कि उन्होंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से शिकायत की थी कि जब से वह मुसलमान हुए हैं अपने शरीर में एक दर्द महसूस कर रहे हैं। तो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनसे कहा : “अपने शरीर के उस स्थान पर अपना हाथ रखो जहाँ तुम्हें दर्द महसूस हो और तीन बार “बिस्मिल्लाह” (अल्लाह के नाम पर) कहो, फिर सात बार कहो : “अऊज़ो बि-इज़्ज़तिल्लाहि व क़ुदरतिहि मिन शर्रे मा अजिदो व उहाज़िरो”  (मैं अल्लाह तआला की महिमा और शक्ति की शरण लेता हूँ उस चीज़ की बुराई से जो मैं महसूस करता हूँ और जिससे डरता हूँ।”

तिर्मिज़ी (हदीस संख्या : 2080) ने यह वृद्धि की है : “उन्होंने कहा : चुनाँचे मैंने ऐसा ही किया, तो अल्लाह तआला ने मेरी वह तकलीफ दूर कर दी जिससे मैं ग्रस्त था। फिर मैं अपने परिवार वालों को और दूसरों को भी ऐसा करने का आदेश देता रहा।’’ अल्बानी ने इसे सहीह तिर्मिज़ी (हदीस संख्या : 1696) में सहीह कहा है।

तथा इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है कि उन्होंने : नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हसन और हुसैन के लिए शरण माँगा करते थे और कहते थे : “तुम्हारे पिता [अर्थात इब्राहीम अलैहिस्सलाम] इस्माईल और इसहाक़ के लिए इन शब्दों के साथ अल्लाह की शरण माँगा करते थे : "अऊज़ो बि-कलिमातिल्लाहित्ताम्मह मिन कुल्ले शैतानिन् व हाम्मह व मिन कुल्ले ऐनिन् लाम्मह"

(मैं अल्लाह के सम्पूर्ण कलिमात की शरण में आता हूँ हर शैतान और ज़हरीले जानवर से और हर बुरी नज़र से।)” इसे बुखारी (हदीस संख्या : 3191) ने रिवायत किया है।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

स्रोत

साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर

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